Sunday, October 23, 2011

कभी-कभी मां की याद


जब भी 65 पार की किसी महिला को देखता हूं
तो ख़याल आता है कि मां अगर जीवित होती तो इसी उम्र की होती
फिर कल्पना करता हूं, कैसी वह लग रही होती।
उसके वे बाल पूरी तरह पक गए होते
जिनके किनारों पर सफ़ेदी देखकर
आख़िरी तीन-चार वर्षों तक वह हंसा करती थी।
उसकी पीठ शायद कुछ झुक गई होती
जिसे तान कर बैठने की वह हमको कभी नसीहत दिया करती थी
और कभी अभ्यास कराया करती थी
उसकी आवाज़ में शायद उम्र की कुछ सांसें दाखिल हो गई होतीं।

वह एक पूरी तरह बूढ़ी महिला होती
जो अपनी ममता का ख़जाना अब अपने दो बेटों और एक बेटी
के बेटे-बेटियों पर लुटाया करती-
हालांकि पता नहीं, बहुओं से उसके कैसे रिश्ते होते
और उसकी उपस्थिति में यही बहुएं होतीं भी या नहीं
क्योंकि हममें किसी की शादी देख या तय कर पाने से पहले ही
वह जा चुकी थी।

नहीं, यह मेरे लिए अफ़सोस का विषय नहीं है
कि वह यह सब देखे बिना चली गई।
आख़िर हममें से कोई भी अमृत पीकर नहीं आया है
और हर किसी को किसी न किसी दिन जाना है,
और अब तक के अपने अनुभव से मैं जानने लगा हूं
कि किसी की भी सारी इच्छाएं एक उम्र में पूरी नहीं होतीं
और अगर हो जाती हैं तो उनके भीतर नई इच्छाएं पैदा होने लगती हैं.
जबकि मां तो इतनी सारी इच्छाओं वाली थी भी नहीं,
इसलिए फिर दुहराता हूं
उसका जाना मेरे लिए शोक का विषय हो तो भी उसे सार्वजनिक करने के लिए
मैं इन पंक्तियों का सहारा नहीं ले रहा
बावजूद इसके कि वह काफी पहले चली गई
बावजूद इसके कि उसके जाने के बाद हम सबने ऐसा खालीपन महसूस किया
जिसे भरा नहीं जा सका
जैसे वह धुरी ही टूट गई जिस पर हर हमारा वह पूरा परिवार टिका था
जो उसके बाद जैसे बिखरता चला गया।
नहीं, मैं इस शोक के ज्ञापन के लिए भी यहां नहीं हूं।
मैं तो उस शोक के पार जाने की कोशिश कर रहा हूं
जो मां की मृत्यु ने और इससे पैदा हुए सन्नाटे
ने हम सबके भीतर पैदा किया था।

ऐसा नहीं कि किसी भी बूढ़ी महिला को देखकर मुझे अपनी मां याद आती हो।
ऐसा भी नहीं कि हमेशा उसकी याद आती रहती हो
उसके गुज़रने के बाद अब तक के 17 साल में
बस कुछ कातर और आत्मीय लम्हे रहे होंगे जब वह मुझे शिद्दत से याद आई
और
कुछ रातों के सिहरते हुए कोमल सपने
जहां कभी वह मेरे बाल सहलाती, मेरे साथ घूमती या बात करती या मेरी फिक्र करती मिली।
लेकिन वह नहीं है,
वह धीरे-धीरे जीवन से दूर चली गई
जैसे किसी सीधी पगडंडी पर आगे बढ़ता या पीछे लौटता मुसाफिर
धुंधला होता-होता अदृश्य हो जाए।
हालांकि यह रूपक इस आशय से मेल नहीं खाता
क्योंकि पीछे वह छूटती चली गई,
आगे हम बढ़ते चले गए।
हमारे भीतर की खाली जगहें भरती चली गईं
या मरती चली गईं।
यह सब सोचकर कुछ उदासी होती है
मन कभी-कभी भर आता है
कि कितना निर्मम होता है जीवन।
पीछे छूट गए लोगों के लिए कोई गुंजाइश नहीं छोड़ता।
हम फिर हंसते हैं, फिर खेलते हैं, फिर से जीने लगते हैं
और कभी-कभी उदास भी हो जाते हैं
लेकिन स्मृति और उदासी के गलियारों में टहलना भी
जीवन का उल्लास ही है-
जो नहीं हैं, उनके अब तक होने की कामना
और यह कल्पना कि वे कैसे लगते अगर अब भी होते।

मेरे लिए इस कल्पना का मोल हो तो हो
लेकिन मेरी उस मां के लिए क्या,
जिसे न कोई कल्पना छूती होगी
न कोई दुख व्यापता होगा
वह तो स्मृति और जीवन के पार
न जाने किस अकल्प अछोर अंधकार में
हमेशा-हमेशा के लिए गुम हो गई है।
वह नहीं लौटेगी, जानता हूं।
बस उसे अपने भीतर बचाए रखना चाहता हूं
उसके लिए नहीं, अपने लिए
जिसे इस लगातार अजनबी होते संसार में
चाहिए एक अपना।
वह यों ही याद नहीं आ जाती है कभी-कभी

Thursday, October 13, 2011

ईश्वर और मनुष्य के बीच तीन बेतुकी कविताएं


एक

इंसान ही प्रतीक्षा नहीं करते किसी भगवान की
कि वह आए और उनके दुखदर्द दूर करे
भगवान भी राह देखता रहता है किसी इंसान की
जो आए और उसकी तकलीफ भी समझे
दरअसल सिर्फ भगवान जानता है कि
वह तभी तक है जब तक इंसान तकलीफ में है।
वह भी इंसान के दुख दर्द की पैदाइश है।
जिस दिन दुख-दर्द गएउस दिन भगवान भी गया।
शायद इसलिए भगवान दुख-दर्द बनाए रखता है
यानी यह इंसान को तकलीफ़ पहुंचाने से ज़्यादा अपने बने रहने की युक्ति है।
चाहें तो हम देख सकते हैं इस भगवान को कुछ सहानुभूति से,
आखिर हर कोई किसी तरह बचे रहने की जुगत में ही तो लगा रहता है.
फिर भगवान हमारे बहुत सारे बोझ उठाता भी है।
अपनी नाकामियों के लिए भी हम उसे ज़िम्मेदार ठहराते हैं
और
बेईमानी से अर्जित सफलताओं के लिए भी उसे प्रसाद चढ़ाते हैं
और नाकामियों और कामयाबी के बीच किए-अनकिए गुनाहों का एक पूरा सिलसिला होता है
जिसके लिए कभी हम भगवान से माफ़ी मांगते हैं और कभी आंख चुराते हैं
वह होता है इसलिए अपने को पलट कर देखने की ज़रूरत महसूस होती है
जो हैं, उससे ऊपर उठने का दबाव महसूस होता है।

दो

हममें से कुछ ऐसे भी हैं जो भगवान बनने की कोशिश में कुछ बेहतर इंसान बन गए।
हालांकि इससे यह साबित नहीं होता कि जो भगवान बनना चाहते हैंवे बेहतर मनुष्य बनना चाहते हैं
अक्सर भगवान होने की हमारी कामना के पीछे उसकी बेशुमार ताकत का खयाल होता है
दरअसल यह ताकत है जो भगवान को भी बनाती है और इंसान को भी दौड़ाती है।
ताकत हो तभी आप दूसरों को दुख दर्द दे भी सकते हैं और उन्हें दूर भी कर सकते हैं।
इस लिहाज से लगता है कि ताकत सबसे बड़ी चीज़ है।
ताकत हो तो आदमी कुछ भी कर सकता है
सीधे भगवान बन सकता है।
लेकिन ऐसा होता नहीं।
ताकत हासिल कर भगवान बनने निकला आदमी जानवर या हैवान ही बन पाता है।
यानी ताकत इंसान को इंसान भी नहीं रहने देती।
ताकत की ख्वाहिशें जैसे ख़त्म ही नहीं होतीं
वह हर जगह छा जाती हैहर चीज़ पर हावी हो जाती है।
बुद्धि परविवेक परजीवन की किसी भी दूसरी कसौटी पर।
यानी ठीक से नतीजा निकालें तो हम पाते हैं कि ताकत से आदमी उठता कम गिरता ज़्यादा है।
दरअसल जब वह इस ताकत की व्यर्थता समझ जाता है तो ज़्यादा बेहतर आदमी होता है
और
ज़्यादा बेहतर आदमी होता है तो देवता कहलाने लगता है।


तीन

ईश्वर और आदमी और ताकत के इस खेल को करीब से देखने पर
समझ में आता है कि ज़िंदगी का खेल दौड़ने से नहींछोड़ने से सधता है
वरना हम आगे-आगे दौड़ते जाते हैंपीछे की ज़मीन छूटती जाती है।
वैसे दौड़ने और छोड़ने से कहीं ज़्यादा तुक
छोड़ने और जोड़ने की मिलती है
जब हम कुछ छोड़ते हैं तो कुछ जोड़ते भी हैं
लेकिन अगर छोड़ने से पहले जोड़ने का खयाल आ जाए
तो वाक्य और जीवन दोनों में आखिर में छोड़ने की ही नौबत आएगी।
ध्यान से देखिए तो इस खेल में ताकत का सवाल भी पीछे छूट गया
और
ईश्वर का ख़याल भी,
वह कविता तो न जाने कहां रह गई
जो ताकत और ईश्वर को और इंसान और भगवान को जोड़ने और समझने की चाहत में शुरू की गई थी।
तो अब ऐसा करते हैंसबकुछ छोड़ देते हैं।
तय है कि इससे भगवान नहीं सधेगा,
इंसान भी नहीं सधेगा,
कविता भी नहीं सधेगी
लेकिन देर तक चुप रहकर देखिए
सबकुछ को छोड़कर खोकरसहकर देखिए
शायद इस मौन में
ईश्वर भी पांव दबाए चला आए
कविता भी आंख मलती हुई खड़ी हो जाए
मनुष्य भी सांस लेने लगे।