Sunday, October 7, 2007

साल

जनवरी नए उगते फूलों की ख़ुशबू जैसी लगती है
जब हम पहली बार बाग में दाख़िल हो रहे हों
सोचते हुए, अभी तो शुरू हुआ है साल
और इस बार तो सहेज लेंगे वह सब जो इतने सालों से बिखरा पड़ा है

फिर फरवरी आकर कुछ फूल गिरा जाती है पांवों पर
और सरग़ोशियों में याद दिला जाती है
कि कुहरे-कुहरे में कुछ वक़्त फिसल गया है
फिर भी अफ़सोस नहीं है न ताज़गी में कमी है कोई
आख़िर कम नहीं होते ग्यारह महीने
और सहेजना शुरू करने में लगता तो है थोड़ा वक़्त

मार्च थोड़ी तपिश और थोड़ा पसीना छोड़ जाता है
कुछ फ़िक्र भी कि अब तक ज़िंदगी पटरी पर नहीं आई है
फिर भी एक तसल्ली है कि मौसम से ऊष्मा है
और थोड़े से धीरज, थोड़ी समझदारी से तानी जा सकती हैं
वक़्त की प्रत्यंचाएं अपने अनुकूल।

अप्रैल के साथ आता है शुष्क सा यथार्थ
कि फिर वही फिर वही मौसम जिसमें वक़्त की धूप
कोमल इरादों की पत्तियों को झुलसाना शुरू करती है
हम कमरे में हैं मेज़ पर और कलम खुली पड़ी है
काग़ज़ उड़ रहा है और शब्द पकड़ में नहीं आ रहे
थोड़ी सी बोरियत कुछ थकान और चाय पीने की इच्छा
जो हमें खींच लाती है कमरे से बाहर।


और अब हम मई के सामने हैं, बाहर धूल है भीतर क्लांति
बीच में सिर पर पड़ती हुई धूप
हम क्या करें कहां जाएं
ये वो मौसम है जो कमरे से बाहर जाने की इजाज़त नहीं देता
ये ख़ुद को याद दिलाने का वक़्त है
कि साल अपने आधे सफ़र के अंतिम पड़ाव पर है
और उम्मीदों और इरादों के इम्तिहान लगातार होते जाएंगे मुश्किल
लेकिन फिर वही सवाल कहां जाए, क्या करे कोई

जून थोड़ी सी उमस और चिपचिपाहट के साथ आता है
आधे के बचे होने का अहसास बांधे हुए है अब भी
और मेज़ से धूल साफ़ की जा रही है
उजले काग़ज़ रखे जा रहे हैं
किताबें क़रीने से सजाई जा रही हैं
और एक ख़ुशनुमा सा अहसास
देर से ही सही, शुरुआत तो हुई

कि सामने आ खड़ी होती है जुलाई
बारिश में भीगी अपनी गीली चोटी लटकाए
कमरे में बूंदें आ रही हैं और कागज़ कोरा का कोरा है
कलम पड़ी है एक किनारे और मन स्थिर नहीं है
कुछ दोस्तों की मीठी याद, कुछ दुश्मनों से तुर्श ईर्ष्या
जिन्हें मौसम का कोई दखल रोकता नहीं।

अगस्त से शुरू हो जाती है ढलान
और कुछ थकान भी
जिसमें पहली बार शामिल है यह उदास करने वाला खयाल
कि यह साल भी जेब और ज़िंदगी से यों ही न निकल जाए

सितंबर थोड़ा सहारा देता है तसल्ली भी
कि बाक़ी है लिखने की इच्छा
इसके बावजूद कि बहुत सारी अड़चनें हैं उलझनें भी
और उससे ज़्यादा अनमनापन कि कोई चीज़ इन दिनों छूती नहीं
छूती है तो टिकती नहीं

अक्तूबर तुरही बजाता हुआ आता है
याद दिलाता हुआ कि सारे उत्सव मना लो इन्हीं दिनों
यह अपने किए को सहेजने का वक़्त है
लेकिन अनकिए को कोई कैसे सहेजे, यह नहीं बताता।

नवंबर से शुरू हो जाता है विदागीत
हल्की-हल्की सर्दियां और पहाड़ों-आसमानों से उतरता
कोमल धूप में लिपटा चिड़ियों का संगीत
यह हिसाब-किताब करने का वक़्त है
खोया-पाया की बही खोलने का
और देखने का
कि इरादों की कोमल पत्तियां वक़्त की पुस्तक में दबे-दबे सूख गई हैं
हालांकि उनके निशानों में भी है रचना की गुंजाइश


और दिसंबर तो बस आता है नए साल का दरवाज़ा खोलने के लिए
बची-खुची छुट्टियां लेने का वक़्त और खुद से किए वायदों को भूल
नए वायदे करने का।
कि पहली बार महसूस होता है कि अरे, निकल गया यह साल तो
लेकिन साथ में उतरता है यह बोझ भी
कि चलो भले बीता कोरा का कोरा
लेकिन इसके बाद तो आ रहा है नया साल
जिसमें हम बांध सकेंगे नए सिरे से मुट्ठियां
और ख़ुद को दे सकेंगे तसल्ली
कि बाकी हैं अब भी कई बरस हमारे लिए

3 comments:

सुबोध said...

हर कविता तारीफ के काबिल होती है..लेकिन कुछ ही कविताएं...दर्शन तक जा कर समूची जिंदगी छू लेती हैं...ऐसा ही एहसास है इस कविता के साथ

abhishek said...

कैलेण्डर के पन्नों की बिल्कुल सटीक व्याख्या..... कविता जैसे रोज पलटते पन्ने,,,, साधुवाद
- अभिषेक

Kalawanti Singh said...

achchhi kavitayen.