Tuesday, September 25, 2007

अहंकारी धनुर्धर

सिर्फ़ चिड़िया की आंख देखते हैं अहंकारी धनुर्धर
आंख के भीतर बसी हुई दुनिया नहीं देखते
नहीं देखते विशाल भरा-पूरा पेड़
नहीं देखते अपने ही वजन से झुकी हुई डाली
नहीं देखते पत्ते जिनके बीच छुपा होता है चिड़िया का घोंसला
नहीं देखते कि वह कितनी मेहनत से बीन-चुन कर लाए गए तिनकों से बना है
नहीं देखते उसके छोटे-छोटे अंडे
जिनके भीतर चहचहाहटों की कई स्निग्ध मासूम संभावनाएं
मातृत्व के ऊष्ण परों के नीचे
सिंक रही होती हैं
वे देखते हैं सिर्फ़ चिड़िया
जो उनकी निगाह में महज एक निशाना होती है
अपनी खिंची हुई प्रत्यंचा और अपने तने हुए तीर
और चिड़िया के बीच
महज उनकी अंधी महत्त्वाकांक्षा होती है
जो नहीं देखती पेड़, डाली, घोंसला, अंडे
जो नहीं देखती चिड़िया की सिहरती हुई देह
जो नहीं देखती उसकी आंख के भीतर नई उड़ानों की अंकुरित होती संभावनाएं
वह नहीं देखती यह सब
क्योंकि उसे पता है कि देखेगी
तो चूक जाएगा वह निशाना
जो उनके वर्षों से अर्जित अभ्यास और कौशल के चरम की तरह आएगा
जो उन्हें इस लायक बनाएगा
कि जीत सकें जीवन का महाभारत
दरअसल यह देखने की योग्यता नहीं है
न देखने का कौशल है
जिसकी शिक्षा देते हैं
अंधे धृतराष्ट्रों की नौकरी बजा रहे बूढ़े द्रोण
ताकि अठारह अक्षौहिणी सेनाएं अठारह दिनों तक
लड़ सकें कुरुक्षेत्र में
और एक महाकाव्य रचा जा सके
जिसमें भले कोई न जीत सके
लेकिन चिड़िया को मरना हो

4 comments:

चंद्रप्रकाश said...

बहुत खूब...

विनीत कुमार said...

आपने केवल मिथक को ही नहीं पलटा बल्कि लक्ष्य के पीछे छुपी हुई क्रूरता को आंखों के सौन्दर्य से धाराशयी कर दिया है। कविता बस केवल इतना करती है कि पढ़ने वाला लड़खड़ा पड़े। आपकी कविता से मैं लड़खड़ा गया। (9871087594)

manish joshi said...

प्रियदर्शन जी महत्वाकांक्शा के पिछे छिपी क्रूरता को इतने बेहतर ढंग से बताने के लिए शुक्रिया। सचमुच व्यक्ति खुद की तमन्नाओं को पूरा करने के लिए किसी भी हद तक चले जाता है। अपने फायदे के लिए दूसरे का नुकसान हो तो हो इससे उसे कोई फर्क नहीं पड़ता।
मजा आ गया।

Ila said...

बड़ी गहरी अंतरदॄष्टि है। चकित रह गई ।
इला